Friday, October 2, 2020

1.) अंधविश्वास(Superstition)

अंधविश्वास(superstition):-
सुबह सुबह अपने पसंदीदा लोगों के चेहरे देखने से दिन अच्छा जाता है और कुछ अच्छा होता है अगर किसी अनचाहे व्यक्ति का चेहरा देख लिया तो हमारा दिन खराब जाता है हमारे साथ कुछ बुरा होता है बगैरा बगैरा ।


वास्तविक परिणाम:- 

ऐसा सोचने वाला वास्तव में मूर्ख है इसमें तो कोई संदेह नहीं है मगर उसकी मूर्खता देखो कि वो इस आश में दिनभर खोया रह सकता है कि आज उसके साथ कुछ अच्छा होगा । अगर उसने गलती से किसी अनचाहे व्यक्ति का चेहरा देख लिया तो वो अपना चेहरा ऐसे बिगाड़ लेगा जैसे की उसके जीवन में छन भर के लिए सबसे बड़ा शोक आ गया हो और उसके साथ उस पूरे दिन में कुछ गलत हो गया तो वो उसी व्यक्ति के ऊपर दोष मढ देता है जिसका उसने सुबह चेहरा देखा था ऐसे मूर्ख व्यक्ति अपने यहाँ आये किसी अतिथि का चेहरा भी सुबह देखना पसंद नहीं करता है और अगर गलती से दिख भी जाये तो अपने सोच के अनुरूप असमंजस की स्थिति को उत्पन्न करता है अंधविश्वास कितनी बुरी चीज है आप इसी से अंदाजा लगा सकते हैं कि जिसे वो "अतिथि देवो भवः" कहकर भगवान बना देता है उसे वो अपने मूर्खतावश शैतान भी बना सकता है।

प्रचलित कहानियाँ:- 

इस अंधविश्वास पर एक बहुत ही सुन्दर कहानी प्रचलित है कि अकबर के राज्य के एक गाँव में एक व्यक्ति रहता था जो बहुत ही मनहूस था, जो भी सुबह सबेरे उसका चेहरा देखता था उसका पूरा दिन खराब जाता था और उसके साथ कोई न कोई अनहोनी हो जाती थी इसलिए उस गांव के लोग उसको सुबह सबेरे देखना पसंद नहीं करते थे ये बात राजा अकबर के पास पहुंची मगर उन्हें इन सब बातों पर नाम मात्र भी विश्वास नहीं था तो उन्होंने सोचा की क्यों ना राज्य के लोगों का संशय दूर  किया जाए तो उन्होंने उस व्यक्ति को अपने राज महल बुलाने का आदेश दिया यह जांच करने के लिए कि क्या वाकई में ऐसा कुछ होता है वो व्यक्ति राजमहल में लाया गया उसे आदेश दिया गया कि सुबह होते ही उसे राजा के आंख खुलने से पहले उनके कमरे में प्रवेश करना है ताकि राजा सुबह सबेरे उठते ही उसका चेहरा सबसे पहले देख सकें सुबह हुई राजा ने उसका चेहरा देखा और अपने काम में लग गए राजदरबार जाते हुए राजा सीढियों से गिर पड़े उनके पैर में गम्भीर चोट आयीं और राजा का दो दांत भी सीढियों से टकराने के बाद टूट गया राजा बहुत नाराज हुए और क्रोध में आकर उस मनहूस व्यक्ति को तत्काल फांसी की सजा सुना दी और फांसी के लिए शाम का समय तय किया गया, उस व्यक्ति को कैदखाने में बंद कर दिया गया बीरबल अकबर के दरबार के एक विद्वान और चतुर मंत्री थे जब उन्हें इस बात का पता चला तो वो उस व्यक्ति से मिलने कैदखाने में जा पहुंचे वो निर्दोष और मासूम व्यक्ति फफक फफक कर रोने लगा वो मंत्री बीरबल से अपने जान की भीख मांगने लगा और कहने लगा इसमें मेरा क्या दोष है ? राजा बीरबल !, मैं निर्दोष हूँ । मुझे बचाइये, बीरबल ने उसे आश्वासन दिया कि वो उसके लिए कुछ करेंगे ।
शाम ढल गई उस व्यक्ति को फांसी के तख्ते तक लाया गया वहीं पास में राजा, प्रजा और मंत्रीगण उपस्थित थे । बीरबल ने अपनी बात राजा अकबर के समक्ष भरी प्रजा में रखी उन्होंने कहा कि महाराज ! अगर इस व्यक्ति का चेहरा सुबह देख लेने से आपका पूरा दिन खराब हो गया है और आपके साथ कोई अनहोनी हुई है तो वाकई यह व्यक्ति मनहूस है मगर उससे भी बड़े मनहूस आप हैं जिसका चेहरा सुबह देखने के बाद इस व्यक्ति को पूरे दिन कैदखाने में बिताना पङा और कुछ देर में उसे फांसी भी मिलने वाली है, राजा अकबर को अपनी गलती का अहसास हुआ और प्रजा को भी यह बात सुनकर अपनी मूर्खता पर बहुत शर्म महसूस हुआ । उस व्यक्ति की सजा माफ कर दी गई और उसे इज्जत के साथ राजदरबार से उसके गांव भेज दिया गया ।

Monday, September 21, 2020

भक्तों के भगवान हुए वो नेता जी !

 

जब से जीता चुनाव उन्होंने बलवान हुए वो नेता जी,

छप्पन इंच का सीना हुआ पहलवान हुए वो नेता जी

देश की मीडिया बिक गई खरीदवान हुए वो नेता जी

फेंक फेंक कर मन की बात मनवान हुए वो नेता जी

शिक्षा छिन शौचालय दिया दयावान हुए वो नेता जी

हङप लिया देश के युवा का पद विद्वान हुए वो नेता जी 

रोजगार छिन चाय पकौड़े की दूकान हुए वो नेता जी 

खूब किये विदेशों की सैर हवाईयान हुए वो नेता जी 

डूब गया देश की अर्थव्यवस्था 
डूबाने वाले जलयान के कप्तान हुए वो नेता जी 

भीख मिला केयर फंड में पैसा बेईमान हुए वो नेता जी 

देशभक्ति छूङवाकर भक्तों के भगवान हुए वो नेता जी 




 


Thursday, July 2, 2020

जैसा देश वैसा भेष,आखिर क्यों ?


अपनी सामाजिक अवस्था के अनुरुप एवं हृदय तथा मन को  उन्नत बनाने वाला काम करना ही हमारा कर्तव्य है परंतु विशेष रुप से ध्यान रखना चाहिए कि सभी देश और समाज में एक ही प्रकार के आदर और कर्तव्य प्रचलित नहीं हैं।  इस विषय में हमारी अज्ञानता ही एक जाति की दूसरे दूसरी के प्रति घृणा का मुख्य कारण है। एक अमेरिका निवासी समझता है कि उसके देश की प्रथा ही सर्वोउत्कृष्ट है जो कोई उसकी प्रथा के अनुसार बर्ताव नहीं करता, वह दुष्ट है। इस प्रकार एक हिंदू सोचता है कि उसी के रस्म रिवाज संसार भर में ठीक और सर्वोत्तम है और जो उनका का पालन नहीं करता, वह महा दुष्ट है । हम सहज ही इस भ्रम में पड़ जाते हैं ऐसा होना बहुत ही स्वाभाविक भी है। परंतु यह बहुत ही अहितकर है, संसार में परस्पर के प्रति सहानुभूति के अभाव एवं पारस्परिक घृणा का यह प्रधान कारण है ।


मुझे स्मरण है जब मैं इस देश में आया और जब मैं शिकागो प्रदर्शनी में से जा रहा था, तो किसी आदमी ने पीछे से मेरा साफा खींच लिया मैंने पीछे घूम कर देखा तो अच्छे कपड़े पहने हुए एक सज्जन दिखाई पड़े । मैंने उनसे बातचीत की और जब उन्हें यह मालूम हुआ कि मैं अंग्रेजी भी जानता हूं, तो वे बहुत शर्मिंदा हुए ।

        इसी प्रकार उसी सम्मेलन में एक दूसरे अवसर पर एक मनुष्य ने मुझे धक्का दे दिया, पीछे घूम कर जब मैंने उससे कारण पूछा, तो वह भी बहुत लज्जित हुआ और हकला- हकलाकर मुझसे माफी मांगते हुए कहने लगा- "आप ऐसी पोशाक क्यों पहनते हैं?" इन लोगों को की सहानुभूति बस अपनी ही भाषा और वेशभूषा तक सीमित थी ।

     शक्तिशाली जातियां कमजोर जातियों पर जो अत्याचार करती हैं, उसका अधिकांश अत्याचार इसी दुर्भावना के कारण होता है । मानव मात्र के प्रति मानव का जो बंधु-भाव रहता है, उसको यह सोख लेता है । संभव है, वह मनुष्य जिसने मेरी पोशाक के बारे में पूछा था तथा जो मेरे साथ मेरी पोशाक के कारण ही दुर्व्यवहार करना चाहता था, एक भला आदमी रहा हो एक संतान वत्सल पिता और एक सभ्य नागरिक रहा हो; परंतु उसकी स्वाभाविक सहृदयता का अंत उसी समय हो गया, जब उसने मुझ जैसे एक व्यक्ति को दूसरे वेश में देखा ।



Wednesday, June 10, 2020

जिन पैरों में जख्म दियें हैं तुमने !



जिन पैरों में जख्म दिए हैं तूने 
वो पैर और अब न चल पाएंगे,
करना अपने गंदे नालों को साफ 
चमकाने तेरे शहर को लौट कर हम न आएंगे

जिस गांव मेरा घर है हम उसी घर को अपना स्वर्ग बनाएंगे 
तुम खाना हवा प्रदूषित 
हम प्रकृति के सुंदर पौधों से अपने गांव को सजाएंगे 

ये वहम था मेरा सुंदर शहर है तेरा 
गांव में आकर कुछ जुमलों ने बताया था
साफ-सुथरे कपड़े थे उनके 
मगर मन देख ना सका जो काला था 
गांव के लोगों को गवार 
वो खुद को शिक्षित बताने वाला था 
बड़े-बड़े सपने बनेगा तू भी बड़ा 
अगर मेरी तरह तू भी शहर की ओर बढ़ा 
यही कहा था उसने आ गया मैं उसके झांसे में 
सुखों को छोड़कर सुखों की चाह में 
मैं आ गया तेरे शहर में 

मैं धूप, धूल, गंदगी में खटता रहा 
कहीं बन किसी द्वार का प्रहरी 
लोग सोते रहे, मैं अंधेरों में भी भटकता रहा 

जिन पैरों ने खिदमत में तेरी 
रातें टहल कर बिताई थी 
उन पैरों को बहुत जख्म दिए हैं तूने 
वो पैर और ना अब चल पाएंगे,
भय से नीन्द न आये तुम्हे 
तुम कर लेना खुद की रखवाली 
बचाने लौटकर हम न तुम्हे आयेंगे । ।

Wednesday, June 3, 2020

सच्ची खुशी ही जीवन का उद्देश्य है।



हमारा सच्चा घर अतीत में नहीं है । हमारा सच्चा घर भविष्य में भी नहीं है । हमारा सच्चा घर यहीं है और वर्तमान में है । जीवन सिर्फ यहीं और वर्तमान में उपलब्ध है और यही हमारा सच्चा घर है हमारी चेतना ही वह ऊर्जा है, जो उस प्रसन्नता को पहचान सकती है जो पहले से ही हमारे जीवन में मौजूद है इस प्रसन्नता का अनुभव करने के लिए आपको दस साल प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं है । यह आपके रोजमर्रा के प्रत्येक क्षण में उपस्थित है। हममें से बहुत लोग ऐसे हैं, जिन्हें खुद के जीवित होने का एहसास नहीं है जबकि कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सांस लेते ही खुद के जीवित होने का अनुभव करते हैं और जीवित होने के आश्चर्य से भर जाते हैं । इसी कारण चेतना को प्रसन्नता और आनंद का स्रोत कहा जाता है । 

ज्यादातर लोग भुलक्कड़ होते हैं । इस तरह के लोग समय के अभाव से जूझते हैं । उनका दिमाग उनके दुख, उनके उनके क्रोध और उनके पश्चाताप में ही व्यस्त रहता है । वे जीवन का आनंद, जो हमारे आसपास प्रत्येक कण और हर क्षण में मौजूद है, उठा नहीं सकते । उन्हें जीवन के इस आनंद का कोई ज्ञान ही नहीं है ।
 बल्कि उन्हें तो इसका एहसास ही नहीं है कि वे जीवित है और इसी पृथ्वी में है । इसका क्या कारण है ? दरअसल हम या तो अपने अतीत में व्यस्त रहते हैं या फिर अपने भविष्य में । हमें अपने वर्तमान की, मौजूदा क्षण की कोई चिंता ही नहीं है ।जिसमें गहरे डूबकर हम अपने जीवन का आनंद ले सकें । इसी को भुलक्कङपना कहते हैं । हम भूल गए हैं कि हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है । भुलक्कङपन के विपरीत है हमारे मस्तिष्क का सक्रिय और सचेतन होना । ऐसी स्थिति में हम वर्तमान में जीते हैं, उसके प्रत्येक पल का आनंद उठाते हैं, हमारा शरीर और मस्तिष्क वर्तमान में रहता है यही तो चेतना है । हम बेहद कुशलता से सांस लेते और छोड़ते हैं, अपने मस्तिष्क को शरीर के साथ ले आते हैं, नतीजतन हम यहीं वर्तमान में, इसी क्षण में होते हैं । जब हमारा मस्तिष्क हमारे शरीर के साथ होता है, तब हमारा वर्तमान में होना अवश्यंभावी है । सिर्फ वैसी परिस्थिति में ही हम प्रसन्नता की उन शर्तों को पहचान सकते हैं, जो हमेशा हमारे आस-पास ही रहते हैं । प्रसन्नता या खुशी दरअसल प्राकृतिक रूप से आती है। यह स्वभाविक है । चेतना का अभ्यास प्रयास से या श्रम करने से नहीं आता, बल्कि स्वाभाविक रूप से आता है और उसका अनुभव आह्लादित  करने वाला होता है । क्या सांस लेने में आपको श्रम करना  पड़ता है ? चेतना का अभ्यास भी वैसा ही है । मान लीजिए कि कुछ दोस्तों के साथ आप कहीं सूर्यास्त का मनोहर दृश्य देखने के लिए गए हैं ।

 क्या वह दृश्य देखने में आपको श्रम करना पड़ता है ? नहीं, आपको को कोई श्रम नहीं करना पड़ता । आप सिर्फ इसका आनंद उठाते हैं । सांस लेने के साथ भी यही सच है । आपको सिर्फ इतना भर करना होगा कि सांस आराम से ली और छोड़ी जा सके । आपको इस से अवगत होना पड़ेगा और इसका आनंद उठाना पड़ेगा । लेकिन इसमें अतिरिक्त समय न लगाएं । ध्यान रखें कि आनंद ही जीवन का उद्देश्य है,और जीवन का हर कार्य आनंद उठाते हुए बहुत ही सहजता के साथ किया जा सकता है । हमारे चलने और टहलने का आनंद प्राप्त करना होना चाहिए । हमारे जीवन का हर कदम आनंदपूर्ण हो सकता है । आपको जीवन के आश्चर्य से परिचित कराता हुआ चलता है । हर कदम में शांति है । प्रत्येक कदम में आनंद है । यह संभव है ।

कट्टरपन धर्म नहीं, न ही अंधभक्ति श्रद्धा है


First president of India


हमारा देश अन्य देशों के मुकाबले कई बातों में विशेषता रखता है हिंदू समाज न मालूम कितने हजार बरसों से समय के थपेड़े  खाता रहा है इसने कितनी उत्तल पुथल देखी है इसका शासन कितने ही देसी विदेशी शासकों के हाथों में समय-समय पर आता रहा है कितने ही लुटेरों व्यापारियों और ठगों ने यहां की समृद्धि को लालच भरी आंखों से देखा है और दबाकर जोर जबरदस्ती से बहला-फुसलाकर अथवा धोखा देकर उस संपत्ति को भोग लेते रहे हैं इस देश ने आज तक किसी भी दूसरे देश पर सैनिक आक्रमण नहीं किया है हिंदू दर्शन अपना मूल वेदों में खोजते हैं जैन और बौद्ध दर्शन भी इनसे प्रभावित हुए थे इसमें संदेह नहीं कि जिस रूप में आज हम भारतीय दर्शन को पाते हैं इसकी प्रेरणा वेदों से प्राप्त हुई थी दर्शन का आधार वास्तव में प्रकृति के निरीक्षण और पर्यावलोचन से निश्चित किए हुए नियम ही होते हैं प्रकृति विषयक परखे हुए और श्रृंखलाबद्ध ज्ञान को ही हम विज्ञान कहते हैं । उस ज्ञान के आधार पर ही तत्वों के विषयों में हम जो अनुमान और कल्पना करते हैं वही दर्शन है । 
सभी धर्म वालों के साथ समभाव रखना ही हमारे देश में जो आग लगी हुई है उसका शमन कर सकता है पर हम तो धर्म के नाम पर स्वार्थ की पूजा करते हैं दूसरों को दबाने का प्रयत्न करते हैं और न मालूम कितने प्रकार के और पाप किया करते हैं यही कारण है कि आज हिंदुओं और मुसलमानों के बीच में दंगे फसाद मारकाट लूटपाट हो रहे हैं । कौन धर्म है, जो इनकी निंदा नहीं करता और किस धर्म में ऐसे लोग नहीं हैं,  जो इसकी निंदा नहीं करते ? चरित्र गठन में धार्मिक भावना बहुत महत्त्व  रखती है धार्मिक भावना से अर्थ कट्टरपन नहीं और श्रद्धा अंधभक्ति नहीं है; पर यह ऐसी चीज है, जो परोक्ष रिति से मनुष्य के जीवन पर प्रत्येक क्षण बहुत असर डालती रहती है और मनुष्य माने या ना माने, उसका नैतिक चरित्र उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता । चरित्र के संबंध में एक ऐसी धारणा हो गई है कि इसके लिए हमें कुछ करना नहीं पड़ता चरित्र की ओर ध्यान न देने का फल होता है कि कुछ लोग तो अच्छे वातावरण और सच्चे संपर्क से जो उनको अनायास मिल जाता है बहुत अच्छे हो जाते हैं और कुछ लोग इसके विपरीत होने से बिगड़ जाते हैं चरित्र सुधारने के लिए हमारे शिक्षालयों में कोई प्रबंध किया जाए तो इसमें कोई संदेह नहीं कि इसका परिणाम बहुत अच्छा होगा । केवल शिक्षकों और जातीय  नेताओं के भाषणों से अच्छे युवक एवं युवतियां तैयार नहीं हो सकेंगे उनका अपना 'चरित्र और व्यवहार' हर तरह से ऐसा होना चाहिए कि उनके काम एवं कथन में कोई भी अंतर ना हो। देश का सुंदर भविष्य तभी बनेगा जब यह आदर्श सामने रहेगा। पंडित वही है, जिसके संपूर्ण कार्य कामना एवं संकल्प से रहित हैं, जिसका धर्म कामना लिप्त नहीं है, जिसने ज्ञानरूपी अग्नि द्वारा अपने कर्मों को कामना और संकल्प रहित बना दिया है ।
किसी नैतिक शिक्षण से मेरा अर्थ किसी धर्म विशेष का शिक्षण है किंतु यह आवश्यक है कि विधार्थीयों को सभी धर्मों के मूल सिद्धांतों की जानकारी हो और सर्व धर्म समभाव का आदर्श उनके सामने उपस्थित किया जाए । विभिन्न देशों के महापुरुषों का जीवन और उनके आध्यात्मिक विचारों का अध्ययन आवश्यक अंग माना जाना चाहिए । बिना नैतिक शिक्षण के कोई भी शिक्षा पद्धति पूर्ण नहीं कही जा सकती ।

Wednesday, May 27, 2020

मूक नायक-2.0

 "भारत ने विश्व को युद्ध नहीं बुद्ध दिया है"

27 सितंबर 2019 को मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के 74 वें सत्र में यह वक्तव्य दिया था और लोगों का ध्यान आतंकवाद फैलाने वाले कुछ शरारती तत्वों की तरफ आकर्षित किया था, तब बुद्ध मानो सदियों से चले आ रहे भारत के एक बड़े विरासत के , एक धरोहर के तौर पर अचानक उभर आए देश प्रेमी लोगों ने तो गर्व से अपना सीना चौड़ा किया ही होगा लेकिन न चाहते हुए भी उन्होंने भी सांस खींचकर दंभ भर दिया होगा जो हर वक्त अपने अधिकारों में डूबे रहते हैं। जो किसी को अपने आगे देखना नहीं चाहते हैं जिनकी अवधारणा में बुद्ध धर्म कोई भी धर्म नहीं है, जो अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए बुद्ध को अपने 33 करोड़ देवी देवताओं में स्थान देने का झूठा दावा पेश करता रहता है ।

उन्होंने ही 27 मई और 22 मई को उत्तर प्रदेश,बसंतपुर के सांकिसा में बौद्ध विहारों को क्षति पहुंचाया उसके दिवारों को तोड़ दिया और वहाँ रह रहे बौद्ध भन्तो को बंदूक की नाल पर प्रताड़ित किया और जान से मारने की धमकी दी इसलिए क्योंकि आज राम मंदिर बनाने के लिए जो चोरी छुपे खुदाई हो रही है। उसके खिलाफ कुछ भन्तो ने आवाज उठाई थी वहाँ मिल रहे अवशेष और बौद्ध स्तूप अयोध्या को बौद्धों की प्राचीन नगरी साकेत बता रही है जिसे राजा बृहद्रथ का और करोड़ों बौद्धों का सर काट कर निच ब्राह्मण पुष्यमित्र शुंग ने अयोध्या बना दिया था।

राम एक काल्पनिक कहानी का पात्र है और कुछ नहीं यह केवल मैं नहीं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी मानते थे।



कुछ ब्राह्मण अपना हित साधने के लिए एक काल्पनिक पात्र को जो कभी था ही नहीं उसको भी उसका होना बता रहे हैं।


कुछ लोगों का मानना ​​है और इतिहास के सबूत बताते हैं कि राम कोई और नहीं साकेत का राजा जो अब अयोध्या के नाम से जाना जाता है पुष्यमित्र शुंग ही है। और ब्राहमणों की मंशा राम के नाम पर अपने प्रिय राजा जो करोड़ों बौद्धों का खूनी है पुष्यमित्र शुंग को लोगों से पूजवाना चाहता है, वह चाहता है कि वह राम राज्य लाकर लोगों से फिर छूआ छूत और जात पात के नाम पर उच्च हो सकता है वह जानता है कि वह एक बौद्ध ही हैं जो उसके ढोंग का पर्दा फास कर सकता है, वह बौद्ध ही हैं जो इस समाज में समता , मैत्री और करूणा का संचार कर सकते हैं मगर अपनी रोटी सेंकने के लिए ब्राह्मण लोगों के बीच भेद भाव बनाये रखना चाहते हैं। वे ये नहीं जानते कि वो जिन बौद्धों पर अल्पज्संख्यक समझकर अत्याचार करने की कोशिश कर रहे हैं आज इसमें sc / st / obc जो भारत की 85% आवादी है, वो भी बौद्धों के संरक्षण में हैं और ज्यादातर खुद को बौद्ध के तौर पर देखते हैं और उन बौद्धों के साथ खड़ा है जिन पर सवर्ण और मनुवादी जाहिल समाज अत्याचार करने और उसे उखाड़ फेंकने की कोशिश में है ।

Friday, May 22, 2020

बहुत कुछ करना चाहता हूँ।


बहुत कुछ करना चाहता हूँ 
बहुत कुछ छूट जाता है
मैं शायद थक जाता हूँ
जुनूँ मेरी नहीं थकती
काम से नहीं, मैं थकता हूँ
समय से लड़ते-लड़ते

मैं जब विस्तर से उठता हूँ
तो हर वो काम करता हूँ
जिसमें खुशी हो मेरी माँ की
पिता के शान का ख्याल रखता हूँ
एक छोटी सी बहन है मेरी
एक बड़ा भाई है मेरा
जो मुझसे भी नादान है
उनकी खुशियों का ख्याल रखता हूँ
सोचता हूँ अगर मैं नहीं तो करेगा कौन ?

मैं करता हूँ समय से लड़ना पड़ता है
मगर मैं लड़ता हूँ
उनकी खुशियों की खातिर
बहुत कुछ करना चाहता हूँ
बहुत कुछ छूट जाता है
मैं शायद थक जाता हूँ
जुनूँ मेरी नहीं थकती ।।



















Sunday, May 17, 2020

सफलता का श्रेय

कविता:- सफलता का श्रेय 

सफलता के दो कदम पीछे ही मेरे अपनों ने साथ छोड़ दिया है 

जो बढ़ाया था हाथ उसने मेरी सफलताओं को देखकर मोड़ लिया है 

जिन पर विश्वास था मुझे सबसे ज्यादा 

उन्होंने मुझे मेरे हालात पर छोड़ दिया है 

मैं सफल हो न जाऊं कहीं 

उन्होंने मुझसे मुंह मोड़ लिया है 

उनको लगता है उनके साथ छोड़ने से मैं टूट कर बिखर जाऊंगा 

मूर्ख हैं वो लोग जो सोचते हैं कि जहां वो हैं मैं भी वहीं ठहर जाऊंगा इंसानियत का कोई मतलब ही नहीं है इस दुनियाँ में 

वो मुकर जाते हैं किसी की सफलता को देखकर 

जो मांगते हैं उनके सफलता की दुआ अपनी झोलियां में 

मैंने सोचा था सफलता की सीढ़ी पर चढ़कर 

अपनी सफलता का श्रेय किसको दूंगा ?

जब अपनों ने मेरा साथ दिया है तो 

निःसंदेह सफलताओं का श्रेय में उनको दूंगा 

पर जब अपनों ने मेरा साथ छोड़ा 

तो मेरा दिल टूटा तो सही 

पर मैंने अपने दिल के टुकड़ों को बिखरने नहीं दिया 

इसलिए मैंने अपनी सफलता का श्रेय मुझे दिया है 

क्योंकि हर परिस्थिति में मैंने अपने सपनों का साथ दिया है 

मैंने मेहनत डटकर किया है ।



About its creation:- 

अपने हमेशा अपने ही होते हैं पर जो चापलूसी से अपनापन सिद्ध करना चाहते हैं उनका कोई भरोसा नहीं कि वह कब अपना रंग दिखा दे उनका अपनापन वहीं पर क्यों थम जाता है मदद ? मदद हर कोई किसी की करना चाहता है पर संभवतः मदद तो वो होनी चाहिए कि हमारी मदद से कोई शिखर पर पहुंच जाए और हमारे मन में अभिमान का एक अंश न आए , यह ना आए कि हमने उसकी मदद की है तो उसको हमारा एहसान मानना चाहिए और मूर्खता पूर्ण यह कहते हुए कि क्या वह हमसे बड़ा हो जाएगा तो हमारी इज्जत करेगा ? जहां पर अपनों का सफल होना उनसे देखा नहीं जाता है शायद वह हमसे इतना प्यार करते हैं कि उनसे हमारा दूर जाना अच्छा नहीं लगता है पर क्या प्यार का यही मतलब है कि आप अपने साथी के रास्तों में कांटा बिछाकर उसे रोकें , उनके रास्तों का रोड़ा बनकर उसे रोके यह तो मूर्खता है ना यदि आप सच में उनसे प्यार करते हैं तो उनका अनुसरण कीजिए उनके जैसा कड़ी मेहनत कीजिए ताकि आप उनके साथ चल सके किसी के सफलता के समय हमें उसका साथ नहीं छोड़ना चाहिए यह हमारे प्यार की परीक्षा की घड़ी होती है किसी ने कहा है यदि वह आपसे सच में प्यार करता है तो सफलता की कितनी ऊंचाइयों को छू ले आपको जरूर याद रखेगा पर यदि आप किसी के सफलता के समय मुंह मोड़ लेंगे तो आपके अंदर का इंसान आपको कभी माफ नहीं कर पाएगा आप चाहे जितनी भी किसी की मदद कर ले आपका किया वह हर मदद हमेशा आपको क्षुद्र ही लगेगा जब आप किसी के सफलता के रास्ते का रोड़ा बनेंगे इस कविता की उत्पत्ति का कारण मेरे आसपास के लोग हैं जो दिलासा तो देते हैं कि वह मेरी मदद करेंगे पर वह समय आते ही मुकर जाते हैं । हर सफलता की एक कहानी होती है चाहे वो जैसी हो आप भी लिखिए उस कहानी को ।

Thought:- 

यदि आपको किसी की मदद करनी है तो आपको उन्हें ढूंढने की जरूरत नहीं है अपनी जिंदगी में सिर्फ उनकी मदद कर दीजिए जो खुद चलकर आपके दर पर आते हैं ।

वक्त कम है ।

कविता:- वक्त कम है 


वक्त कम है वक्त कम है
करना ज्यादा ज्यादा में दम है
वक्त कम है
उठ खङा हो
रोक ना तु बढते हुए कदमों को यारों
बढ चला है थमने ना देना-देना ना थमने साँसों को प्यारों
वक्त कम है वक्त कम है
करना ज्यादा ज्यादा में दम है
वक्त कम है
देख तु तेरे पास ही कोई भुखा शेर खङा है
भूख तु भी बढा ले यारों रोटी का यहाँ बैर बड़ा है
मांगना मत छीन ले
हो गर तुम्हारे पास दे गमगीन को
तेरे पास कलम उन्हे बना समसीर ले
जो आज तु लङ जायेगा
तुम्हारी पीढियाँ तुम्हारा गुण गायेगा
जो आज तु सो जायेगा
तुम्हारी पीढियाँ रोटी के इक निबाले को रो जायेगा
वक्त कम है वक्त कम है
करना ज्यादा ज्यादा में दम है
वक्त कम है
वक्त कम है फिर भी तु लङ सकता है
मैदान में चाहे हो जो कोई
तु खुद को बस जीत ले
हर जंग तु भी जीत सकता है
देर ना कर सोचने में सोचने में तु देर ना कर
कर तु जो करना है तुमको बार बार मुड़कर देखा ना कर
वक्त कम है वक्त कम है
करना ज्यादा ज्यादा में दम है
वक्त कम है

About its creation:-
कविता लिखने के लिए किसी विशेष ज्ञान की आवश्यकता नहीं कविता हमारे व्यवहार से उत्पन्न होता है हमारे स्वभाव से आता है। भारत के महान कवि रविंद्रनाथ टैगोर जी का मानना था कि हमारी शिक्षा खुले आसमान के नीचे होनी चाहिए प्रकृति के बीचो-बीच होनी चाहिए न कि दीवारों से घिरे छोटे से कमरे में उनके कहने का पर्याय यही था कि हमें ज्ञान न केवल पुस्तक से सीखना चाहिए वरन प्रकृति से भी । 

मैंने जब से कविता लिखना प्रारंभ किया है मैंने स्कूली शिक्षा, कमरे में बंद शिक्षा और किताबी ज्ञान से बचने की कोशिश की है मगर ना चाहते हुए भी मुझे दुर्भाग्यपूर्ण उन्हें पढ़ना ही पड़ता है घर के लोग मेरे पीछे  हाथ धोकर पड़े हैं उनका कहना है कि तुम्हें पहले सरकारी नौकरी करनी पड़ेगी इसके बाद ही तुम अपने मन का कोई काम कर सकते हो तुम ना तो अभी संगीत सीख सकते हो न ही कविता पाठ कर सकते हो और न ही लिख सकते हो!

 मुझे भेज दिया एसएससी और रेलवे की तैयारी करने के लिए मगर मेरा कवित्व कहां पीछा छोड़ने वाला था कोचिंग गया तो अथाह भीड़ को देखकर सोचा और खुद को समझाने लगा “वक्त कम है” और भागने का कोई औचित्य नहीं है तो पढना प्रारम्भ कर दिया पढते हुए मैंने अपने सहपाठीयों के उत्साह वर्धन के लिए इस कविता की रचना की ताकि उनके सफलता में मेरी कविता सहयोगी बन सके ।


मन एक मंदिर

कविता:- मन एक मंदिर  

मन वो मंदिर तेरी काया का  

जिसमें पलता है दानों पर देव तेरा  

मन गाए तो समझो दानव गाए

तुम गाओ तो गाओ देव सदा  

मन की ना गाओ गीत कभी  

मन वो हो जो गाए गीत तेरा  

मन छलिया है मन पापी है 

मानो तो देवों सा मन सर्वव्यापी है  

तुम मना लो मन को तो तुम्हें देव मिले  

क्योंकि  दानव और देव दोनों ही तेरे अंतर व्यापी है

ना मंदिर में आग लगा लेना  

ना राक्षस को गले लगा लेना 

जो देव तुम्हारे अंदर है तुम

तुम उसको न कभी भूला देना


About its creation:- 

आप अपने इधर उधर देखिए कि कैसे प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और शोषण हो रहा है यहां मौजूद हर प्राणी परेशान है उसका कारण खोजने की कोशिश करेंगे तो चारों तरफ उंगली घूमने के बाद वह आपकी तरफ इशारा करेगा, इंसान ही इन कारणों का जड़ है धरती में अपार क्षमता है कि वह अपने यहां बसने वाले हर प्राणी के बिना कुछ किए भोजन और पानी का प्रबंध कर सकता है मगर इंसान को इससे भी ज्यादा कुछ चाहिए अपने तृष्णा की भूख और प्यास बुझाने के लिए भोजन और पानी है काफी नहीं है । अगर इंसान को गुस्सा आए तो वह किसी को मारकर अपने गुस्से को शांत करना चाहता है, अगर उसे भूख लगे तो वह किसी का खाना छीन लेना चाहता है अगर उसे किसी से ईर्ष्या हो जाए तो वह पूरे संसार पर विजय पा लेना चाहता है इसी क्रोध, इसी भूख और इसी ईर्ष्या की इच्छा पूर्ति के लिए एक इंसान दूसरे इंसान से प्रतिस्पर्धा में के होङ में लगा है । आखिर ये क्रोध ये असीमित भूख और ईर्ष्या आता कहां से है इंसान के मन से ! अगर इंसान चाहे तो इंसान के मन में इससे इतर विचार भी आ सकते हैं जो हर किसी के लिए हितकर और कल्याणकारी हो सकता है इंसान क्रोध की जगह करुणा का भाव ला सकता है, असीमित भूख की जगह संयम ला सकता है और ईर्ष्या की जगह दूसरों से प्रेरित होने का भाव मन में ला सकता है मगर इंसान मन की  बुरी प्रवृत्तियों में फंस कर अपना ही सर्वनाश करने पर तुल जाता है अगर वह मन को समझाएं और मनाए तो वह एक अच्छा इंसान बन सकता है मन की इन्ही प्रवृत्तियों को देखकर मैंने यह कविता लिखा है।


नज़्म:- मेरी अभिलाषा

ये जो डर सा लगा रहता है  खुद को खो देने का, ये जो मैं हूं  वो कौन है ? जो मैं हूं !  मैं एक शायर हूं । एक लेखक हूं । एक गायक हूं मगर  मैं रह...