Sunday, May 17, 2020

मन एक मंदिर

कविता:- मन एक मंदिर  

मन वो मंदिर तेरी काया का  

जिसमें पलता है दानों पर देव तेरा  

मन गाए तो समझो दानव गाए

तुम गाओ तो गाओ देव सदा  

मन की ना गाओ गीत कभी  

मन वो हो जो गाए गीत तेरा  

मन छलिया है मन पापी है 

मानो तो देवों सा मन सर्वव्यापी है  

तुम मना लो मन को तो तुम्हें देव मिले  

क्योंकि  दानव और देव दोनों ही तेरे अंतर व्यापी है

ना मंदिर में आग लगा लेना  

ना राक्षस को गले लगा लेना 

जो देव तुम्हारे अंदर है तुम

तुम उसको न कभी भूला देना


About its creation:- 

आप अपने इधर उधर देखिए कि कैसे प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और शोषण हो रहा है यहां मौजूद हर प्राणी परेशान है उसका कारण खोजने की कोशिश करेंगे तो चारों तरफ उंगली घूमने के बाद वह आपकी तरफ इशारा करेगा, इंसान ही इन कारणों का जड़ है धरती में अपार क्षमता है कि वह अपने यहां बसने वाले हर प्राणी के बिना कुछ किए भोजन और पानी का प्रबंध कर सकता है मगर इंसान को इससे भी ज्यादा कुछ चाहिए अपने तृष्णा की भूख और प्यास बुझाने के लिए भोजन और पानी है काफी नहीं है । अगर इंसान को गुस्सा आए तो वह किसी को मारकर अपने गुस्से को शांत करना चाहता है, अगर उसे भूख लगे तो वह किसी का खाना छीन लेना चाहता है अगर उसे किसी से ईर्ष्या हो जाए तो वह पूरे संसार पर विजय पा लेना चाहता है इसी क्रोध, इसी भूख और इसी ईर्ष्या की इच्छा पूर्ति के लिए एक इंसान दूसरे इंसान से प्रतिस्पर्धा में के होङ में लगा है । आखिर ये क्रोध ये असीमित भूख और ईर्ष्या आता कहां से है इंसान के मन से ! अगर इंसान चाहे तो इंसान के मन में इससे इतर विचार भी आ सकते हैं जो हर किसी के लिए हितकर और कल्याणकारी हो सकता है इंसान क्रोध की जगह करुणा का भाव ला सकता है, असीमित भूख की जगह संयम ला सकता है और ईर्ष्या की जगह दूसरों से प्रेरित होने का भाव मन में ला सकता है मगर इंसान मन की  बुरी प्रवृत्तियों में फंस कर अपना ही सर्वनाश करने पर तुल जाता है अगर वह मन को समझाएं और मनाए तो वह एक अच्छा इंसान बन सकता है मन की इन्ही प्रवृत्तियों को देखकर मैंने यह कविता लिखा है।


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