Wednesday, June 10, 2020

जिन पैरों में जख्म दियें हैं तुमने !



जिन पैरों में जख्म दिए हैं तूने 
वो पैर और अब न चल पाएंगे,
करना अपने गंदे नालों को साफ 
चमकाने तेरे शहर को लौट कर हम न आएंगे

जिस गांव मेरा घर है हम उसी घर को अपना स्वर्ग बनाएंगे 
तुम खाना हवा प्रदूषित 
हम प्रकृति के सुंदर पौधों से अपने गांव को सजाएंगे 

ये वहम था मेरा सुंदर शहर है तेरा 
गांव में आकर कुछ जुमलों ने बताया था
साफ-सुथरे कपड़े थे उनके 
मगर मन देख ना सका जो काला था 
गांव के लोगों को गवार 
वो खुद को शिक्षित बताने वाला था 
बड़े-बड़े सपने बनेगा तू भी बड़ा 
अगर मेरी तरह तू भी शहर की ओर बढ़ा 
यही कहा था उसने आ गया मैं उसके झांसे में 
सुखों को छोड़कर सुखों की चाह में 
मैं आ गया तेरे शहर में 

मैं धूप, धूल, गंदगी में खटता रहा 
कहीं बन किसी द्वार का प्रहरी 
लोग सोते रहे, मैं अंधेरों में भी भटकता रहा 

जिन पैरों ने खिदमत में तेरी 
रातें टहल कर बिताई थी 
उन पैरों को बहुत जख्म दिए हैं तूने 
वो पैर और ना अब चल पाएंगे,
भय से नीन्द न आये तुम्हे 
तुम कर लेना खुद की रखवाली 
बचाने लौटकर हम न तुम्हे आयेंगे । ।

No comments:

Post a Comment

नज़्म:- मेरी अभिलाषा

ये जो डर सा लगा रहता है  खुद को खो देने का, ये जो मैं हूं  वो कौन है ? जो मैं हूं !  मैं एक शायर हूं । एक लेखक हूं । एक गायक हूं मगर  मैं रह...