कविता:- माँ सावित्री तेरा अभिनंदन है
एक जंग पर चलता हूँ माँ मेरा साथ देना
डगमगाए ना मेरे पैर मुझे विश्वास देना
इस आस पर विश्वास हो ना छल कपट मेरे साथ हो
हम चले भी उनके साथ में जो दोस्त हमारे साथ हो
हो अगर कभी बुराइयां मेरे सामने
माँ डगमगाए पैरो को आना थामने
माँ तेरा हाथ छूटे ना कभी मेरे हाथ से
तेरे चरणों की धूल लगाऊं मैं अपने हाथ से
विद्या की देवी माँ सावित्री तेरा वंदन है
तू आना हर साल माँ मैया तेरा अभिनंदन है ।।
About its creation:-
यह किसी कहानी की उत्पत्ति नहीं है और ना ही ये कोई कहानी है इसे मैंने अपनी माँ की भक्ति में लिखा है जो अविश्वसनीय है । मैं सच कहता हूँ हम में से ऐसे कितने ही व्यक्ति हैं जो श्रद्धा से कभी माता की पूजा शायद ही करते होंगे एक भक्ति काल का समय था जब हर वक्त लोगों के जुवान पर भगवान का नाम होता था लोग सुबह शाम कुछ समय के लिए भक्ति में लीन हो जाते थे । उस युग के लोगों का पूरा माहौल भक्तिमय था जिससे उस युग के कवि अपनी कविता में भक्ति के छाप छोड़ देते थे आज का समय वह नहीं रह गया मेरा मानना है कि किसी काल्पनिक शक्तियों की सहायता से लिखने वाले कवियों से अच्छा वो कवि होते हैं जो उस चीज को खुद महसूस करते हैं और जो उस माहौल में नहीं रहते हैं उस माहौल की कल्पना करते हुए लिखने की कोशिश करते हैं उनके लिए कविता के भाव का चुनाव दुष्कर होता है ।
Thought:-
यदि आप किसी चीज को लिखना चाहते हैं तो सबसे पहले आपको उसमें जीना सीखना होगा ।
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