Sunday, January 12, 2020

'कवि की व्यथा' सरोज द्वारा लिखी एक सुप्रसिद्ध गीत ।

                          कवि की व्यथा-1

ओ लेखनी ! विश्राम कर
अब और यात्राएं नहीं ।

मंगल कलश पर
काव्य के अब शब्द
के स्वस्तिक न रच
अक्षम समीक्षाएं
परख सकती न
कवि का झूठ-सच ।

लिख मत गुलाबी पंक्तियां
गिन छंद, मात्राएं नहीं ।

बंदी अंधेरे
कक्ष में अनुभूति की
शिल्पा छुअन
वादों-विवादों में
घिरा साहित्य का
शिक्षा सदन

अनगिन प्रवक्ता है यहां
बस, छात्र-छात्राएं नहीं।

                         कवि की व्यथा-2 

इस गीत-कवि को क्या हुआ?
अब गुनगुनाता तक नहीं।

इसने रचे जो गीत जग ने
पत्रिकाओं में पढे।
मुखरित हुए तो भजन-जैसे
अनगिनत होठों चढ़े।

होठों चढ़े, वे मन-बिंधे
अब गीत गाता तक नहीं।

अनुराग, राग विराग पर
सौ व्यंग-शर इसने सहे।
जब जब हुए गीले नयन
तब-तब लगाए कहकहे।

वह अट्टहासों का धनी
अब मुस्कुराता तक नहीं।

मेलों  तमाशा में लिए
इसको फिरी आवारगी।
कुछ ढूंढती दृष्टि में
हर शाम मधुशाला जगी।

अभी भीड़ दिखती है जिधर
उस ओर जाता तक नहीं।



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